वो चेहरा
कभी धुंधला,
कभी उजला.
रहता है
नज़रों के सामने
हमेशा!
सोचा,
मिटा दूँ वो कृति
मन की क़लम से
बनाई गई
वो कलाकृति!
मगर,
नहीं मिलता
वो रबर
जो मिटा सके
पानी से भी हलकी
उस स्याही को!
कभी लगा
कि उठाऊं
और फैंक दूँ उसे
अपनी हदों से दूर
सरहदों से दूर
मगर,
नहीं जुटा पाया
वो हिम्मत
जो उठा सके
हवा से भी हलके
उस अक्स को!
दोस्तों,
आपको क्या लगता है?
क्या मुझे
आदत सी हो गई है
कभी
'दोस्त' से दिखने वाले
उस चेहरे की? © - दीपक हेमराजानी 'दीप'