Saturday, February 22, 2014

वो चेहरा...

वो चेहरा
कभी धुंधला,
कभी उजला.
रहता है 
नज़रों के सामने 
हमेशा!


सोचा,
मिटा दूँ वो कृति
मन की क़लम से 
बनाई गई
वो कलाकृति!
मगर,
नहीं मिलता 
वो रबर 
जो मिटा सके
पानी से भी हलकी
उस स्याही को!


कभी लगा 
कि उठाऊं 
और  फैंक दूँ उसे 
अपनी हदों से दूर
सरहदों से दूर 
मगर,
नहीं जुटा पाया 
वो हिम्मत 
जो उठा सके
हवा से भी हलके
उस अक्स को!


दोस्तों, 
आपको क्या लगता है?
क्या मुझे 
आदत सी हो गई है
कभी
'दोस्त' से दिखने वाले 
उस चेहरे की? © - दीपक हेमराजानी 'दीप'

मेरी यादों की घटायें...

एक रोज़ जब भोर होगी
फ़िज़ां वही चितचोर होगी!
कोई कलि चटखेगी
खिलखिला के डाल की सिरमौर होगी!

दूर कहीं गुलमोहर तले
कोयल कूकेगी और,
जन्नत सारी आत्म-विभोर होगी!

तुम उठोगी, 
अलसाई सी उन अंगड़ाइयों में 
मासूमियत वही अनमोल होगी!

उनींदी सी उन पनीली आँखों से 
तुम देखोगी ये नज़ारे और,
अचानक इन पनीली आँखों में 
एक तस्वीर सी उभरेगी 
ठहरेगी कुछ पल और
धीरे से पिघलकर ज़मींदोज़ होगी!

तुम तरसोगी, 
ढूंढोगी हवाओं में मेरे निशाँ!
और, उद्धाम से तुम्हारे मनोवेग में
मिलन की तमन्ना पुरज़ोर होगी!

ये सारी कोशिशें तुम्हारीं व्यर्थ जायेंगी,
थक-हार कर बैठ जायेंगी!
मैं तो ना चाहते हुए भी
हो जाऊँगा तुमसे दूर बहुत दूर मगर,
तुम्हारे मन में 
मेरी यादों की घटायें घनघोर होगी! - © दीपक हेमराजानी 'दीप'

मेरा मन...

मेरा मन,
एक उद्धाम आवेग
और उसमें बसे
सैंकड़ों दुस्साहस
धकेलते हैं मुझे
घने कोहरे में
स्वयं का अस्तित्व
तलाशने को!

मेरा मन,
एक अकथित तथ्य
और उसमें बसे मेरे आदर्श
प्रेरित करते हैं मुझे
वक़्त के दर्पण में
धुंधला चुका मेरा अक्स
तराशने को!

मेरा मन,
अनवरत बहता एक दरिया
और उसमें उफनते
मेरे लहू कि गर्मी
करती है ह्रदय में
उत्ताल संवेगों का संचार
डूबती नाव कि पतवार
संभालने को!

मेरा मन,
एक तपती भूमि
और उसपर उठते हवाओं के तेज़ बवंडर
करते हैं बहुतेरे
प्रयास असफ़ल
बरसों पुराने घरौंदे
उखाड़ने को!

साथ ही...मेरा मन,
एक खामोश लम्हा
और उसमें समाई
कुछ 'बोलतीं तन्हाइयां'
चुरा लेती हैं मेरा वजूद
और दे जाती हैं दो पल
सुकून से
वक़्त गुज़ारने को!- © दीपक हेमराजानी 'दीप'

सब कुछ पाने की ख़्वाहिश...

सब कुछ पाने की ख़्वाहिश में
सभी को भुलाए जा रहा हूँ मैं...
ये कौनसी आग है,
ये कैसी तपिश है कि जिसमें
ख़ुद ही को जलाए जा रहा हूँ मैं!
सब कुछ पाने की ख़्वाहिश में...

ना कोई मंज़िल है
ना ही कोई हमसफ़र
ये कौनसी अंधी सुरंग है कि जिसमें
अपनी राह बनाए जा रहा हूँ मैं!
सब कुछ पाने की ख़्वाहिश में...

वो गाँव कोई और था जहाँ
झील, दरिया और झरने थे...
ये कौनसा शहर है कि जहाँ
चाहतों के अथाह समंदर में
ख़ुद ही को डुबाये जा रहा हूँ मैं!
सब कुछ पाने की ख़्वाहिश में...

वो बस्ती थी जहाँ बड़ी मस्ती थी
मुट्ठी भर दोस्तों की जहाँ रोज़
रौनकें लगा करती थीं!
अब ना वो बस्ती है, ना ही वो मस्ती
ये कौनसी महफ़िल है कि जहाँ बस
अकेले ही अकेले गाये जा रहा हूँ मैं!

सब कुछ पाने की ख़्वाहिश में
सभी को भुलाए जा रहा हूँ मैं...
ये कौनसी आग है,
ये कैसी तपिश है कि जिसमें
ख़ुद ही को जलाए जा रहा हूँ मैं! - © दीपक हेमराजानी, १२-अगस्त-२०१२.

Friday, February 7, 2014

माँ तू मुझे याद आती है...

माँ तू मुझे याद आती है



दुनियाँ भर की समस्त माँओं को समर्पित मेरी एक रचना।आप सभी से अनुरोध है कि इसपर Like करें न करें, Comment करें न करें मगर, अगर आपको ये रचना अच्छी लगे तो एक बार अपनी माँ से जाकर ये ज़रूर कहें....'माँ! तू अनमोल है और मैं तुझे बहुत प्यार करता/ती हूँ.' धन्यवाद… 

माँ तू मुझे याद आती है...

जब आँख में आंसू होता है
दिल कुछ कहने को होता है
मैं गुपचुप-गुपचुप रोता हूँ
और रात भर नहीं सोता हूँ
तब,
तेरी 'गोद' मुझे याद आती है
मीठी सी लोरी गाती है
माँ तू मुझे याद आती है
माँ तू मुझे याद आती है

जब शाम का सूरज ढलता है
और घर कि राह पकड़ता है
जब दफ्तर में साथी का मोबाइल
किसी मीठी धुन पे बजता है
और “हाँ, माँ!” कहता साथी
जब जी भर भर के मुस्काता है
तब,
अंतस में कहीं मन की आँखें
हौले से भर आती हैं
माँ तू मुझे याद आती है
माँ तू मुझे याद आती है

होटल के ए. सी. कमरे में जब
महँगी थाली आती है
हज़ारों का बिल देकर भी जब
भूख न मिटने पाती है
तब,
ताम्बे के बरतन में पकी
तेरी 'दाल' बड़ी याद आती है.
मन ही मन तू एक निवाला
धीरे से खिला जाती है
माँ तू मुझे याद आती है
माँ तू मुझे याद आती है

पतझड़ से सूने रिश्तों में जब
खून सूख सा जाता है
हर बंधन सूखे पत्ते सा
बस यहाँ वहाँ लहराता है
तब,
रिश्तों कि बंजर भूमि में
'स्नेह खाद' तू मिला जाती है
सूखी फसलें हरी भरी हो
फिर से लहरा जाती हैं
माँ तू मुझे याद आती है
माँ तू मुझे याद आती है... © दीपक हेमराजानी 'दीप'.

Wednesday, October 15, 2008

एक लड़की

एक लड़की...

अक्सर मेरे ख्वाबों में
आती है और
चुपके से मेरे
एहसासों को छूकर
ज़हन में समा जाती है...

महकी हुई उसकी साँसों की
भीनी-भीनी सी खुशबू
मेरी साँसों में समा कर
मन को भीतर तक
महका जाती है

मदभरी आंखों में छाई खुमारी
और पंजाबी गालों से छलकती लाली
रात्रि के उस प्रहर को
और भी
मदहोश बना जाती है...

खो जाता हूँ उन
रेशमी ज़ुल्फ़ों की
घनी छाओं में
जब वो मेरे बालो में
धीरे से हाथ फेर कर
सरगोशी सी कर जाना चाहती है...

वक़्त भी ठहर जाता है
उन लम्हो में
जब कमल-नाल सी वे बाँहें
मेरे इर्द-गिर्द कसती चली जाती है...

अक्सर जाग जाता हूँ मैं
नींदो में कसमसाकर
जब वो मेरे करीब,
और करीब आकर
मेरे कानों पर
अपने रक्ताभ
अधरों को छुआ कर
कुछ कह जाना चाहती है...

जब पूछता है उस-से
ये दिल कुछ धडकते हुए
तो कुछ नहीं कहती
बस मुस्कुराती है
और चली जाती है !!! © दीपक हेमराजानी 'दीप'